यदि भूखंड या बिल्डिंग का आकार नियमित न हो या और यदि प्रकृति के मूलभूत पांच
तत्व संपति के किसी एक या अधिक तत्वों के अनुरुप नहीं है तो उस तत्व/ तत्वों से
प्रभावित होने वाली लाभदायक ऊर्जा से वहां रहने वाले लोग वंचित हो जाते हैं। प्रतिकूल
परिस्थितियों में हमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण परेशानियां भी झेलनी पड़ सकती हैं।''
इस भूखंड में दक्षिण पश्चिम का कटा होना मालिक को स्थायी तौर पर उस स्थान में नहीं रहने देता।
दक्षिण पश्चिम में नौकर रहने से मालिक पर हावी होने की संभावना बढ़ जाती है।
दक्षिण की सड़क वीथिशूल का काम कर रही है जो आपसी मतभेद, आकस्मिक दुर्घटना और भारी
धन हानि का कारण बन सकती है।
दक्षिण पूर्व में बोरिंग होना आक्रमण और बदनामी का कारण बनता है।
तकनीकी शिक्षा व लम्बे अनुभव द्वारा बिल्डिंग की उम्र के ज्ञान का अनुमान लगाया गया है।
चूंकि वास्तु ज्ञान के गढ़ माने जाने वाले शहर हैदराबाद में रहकर भी वास्तु दोष दूर नहीं हो सके,
इसका मतलब कि पहले के मालिक अध्यात्म व समाज में ज्यादा मेलजोल नहीं रखने वाले होने
चाहिए। यह भी अनुमान है कि बैंक का हैदराबाद में मुख्यालय होने तथा प्रदेश में वास्तु विद्या का
अत्यधिक प्रचार/प्रसार होने एवं वास्तु विशेषज्ञों की बहुतायत होने के बावजूद मजबूरी में ही बैंक
ने यह जगह ली होगी तथा लेते ही किसी विशेषज्ञ को दिखाकर ठीक करवाने के प्रयत्न शुरु कर दिये
होंगे। यदि छः माह प्रशासनिक निर्णय लेने, नक्शे बनने व पास होने के लिए लगाये जाएं तो जो
निर्माण हुआ है वह सामान्य परिस्थितियों में लगभग एक वर्ष की प्रगति दिखाता है परन्तु ईशान
(उत्तर-पूर्व) कोना बन्द होने के बाद प्रगति में रुकावट आ जाती है इसलिए दो वर्ष का अनुमान
लगाया गया।
पं० जी के इतना कुछ बताने पर महाप्रबंधक ने बताया कि वाकई यह इमारत ४० साल पुरानी है
और कई लोग एक के बाद एक इसे बेच चुके हैं। बैंक के पास लगभग पिछले २ साल से ही है।
बैंक के कर्जदार ने इसको गिरवी रखकर आयात निर्यात के व्यापार के लिये कुछ कर्ज लिया था
पर वो व्यक्ति किसी सरकारी परेशानी में फंस गया और उसे काफी नुकसान हो गया।
इससे पहले यह संपति जिस कंपनी की थी उसके साझेदारों में झगड़ा हो गया था ।
उससे पहले जिसके नाम यह प्रॉपर्टी थी उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी जिसमें
स्क्यिोरिटी गार्ड भी शामिल था।
बैंक ने प्रॉपर्टी नीलाम कराने की भरसक कोशिश की, जिससे अपना पैसा वसूल हो जाये पर पुराने
रिकार्ड को देखते हुये, शहर के बीचों बीच राजभवन मार्ग पर होते हुए भी इस संपति का कोई उचित
खरीददार नहीं आया, इसलिए अंत में बैंक ने यह अपने नाम कर ली।
उन्होंने आगे बताया कि हमारे कार्यकारी निदेशक पहले मुम्बई में थे वहां से शिफ्ट होकर हैदराबाद
आये हैं। परिवार मुंबई में ही रहता है और वह स्वयं गैस्ट हाउस के ऊपर वाले तल पर रह रहे है।
लेकिन वह भी ज्यादातर मुंबई या दिल्ली के दौरे पर रहते हैं। चूंकि वह वास्तु को बहुत मानते हैं
इसीलिए उन्होंने एक बार मुंबई से प्रसिद्ध वास्तु विशेषज्ञ को बुलाया जो रिलायंस के लिए भी काम
करते हैं। इसके अतिरिक्त हैदराबाद के जो वास्तुकार (आर्किटैक्ट) इसमें बदलाव कर रहे हैं वे शहर
के एक बडे+ वास्तु शास्त्री से भी समय समय पर परामर्श करते रहते हैं। उन्हीं की सलाह पर इसी
प्लाट पर एक कोने में चेयरमैन एवं दूसरे कोने में कार्यकारी निदेशक के लिए घर बन रहे हैं।
तत्पश्चात इस गैस्ट हाउस में भी काफी परिवर्तन किये जायेंगे।
पं० जी ने पूछा, ÷÷जो निर्माण कार्य चल रहा है क्या उसकी प्रोग्रेस से आप संतुष्ट है? तो उन्होंने
मना कर दिया। इसका कारण पं० जी ने उत्तर पूर्व कोने का बंद होना बताया। चूंकि बिल्डिंग की
वास्तु के अनुसार उत्तर पूर्व स्थान/ कमरा पूजा के लिये सर्वोत्तम है परन्तु प्लाट की वास्तु कुछ
अलग होती है। किसी भी प्लाट पर जो पूर्णतया बना हुआ न हो वहां उत्तर-पूर्व (पानी) उत्तर-पश्चिम
(हवा) व दक्षिण पूर्व (अग्नि) के कोने को किसी भी कारण से बन्द नहीं करते क्योंकि इन प्रकृति
की शक्तियों का खुला रहना/चलते रहना ही मुनष्य के जीवन के लिये आवश्यक है। महाप्रबंधक
महोदय ने माना कि इस बहुमंजिला मन्दिर की जैसे ही पहली छत ड़ली थी तभी से काम बहुत
धीमा हो गया है।
दक्षिण पश्चिम का गार्ड रुम हटाकर बहुत अच्छा किया है परन्तु उत्तर पूर्व कोने में हवा बन्द
करना पूर्णतया निषेध है। पं० जी ने सलाह दी कि मंदिर को कोने से हटाकर पूर्व में चारदीवारी
से हटाकर बनाना ही इसका एकमात्र उपाय है जिससे उसके चारों तरफ खुली परिक्रमा के लिये
स्थान हो। इसलिये बना हुआ स्ट्रक्चर तोड़ना ही पडे+ेगा।
पं. गोपाल शर्मा जी ने उन्हें आगे समझाया कि हैदराबाद से तिरुपति के रास्ते में एक स्टेशन
कालहस्ती आता है- जहां एक अति प्राचीन मंदिर है इस मंदिर की अपनी विशिष्ट मान्यता है।
कालसर्प योग की पूजा के लिए शास्त्रों में त्रयंबकेश्वर के बाद इसी का नाम आता है परन्तु दक्षिण
पूर्व (अग्नि स्थान) में पानी (नदी) होने से वहां का न ज्यादा नाम है न वहां ज्यादा लोग आते हैं
तथा पुजारी का वेतन भी भगवान तिरुपति के मंदिर से भेजा जाता है (जो पूर्णतया वास्तु
अनुरुप बना है) इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृति के नियमों के आगे भगवान भी विवश है
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